1st PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Vaibhav Chapter 9 राष्ट्र का स्वरूप

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Karnataka 1st PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Vaibhav Chapter 9 राष्ट्र का स्वरूप

राष्ट्र का स्वरूप Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
किनके सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है?
उत्तरः
भूमि, जन और संस्कृति के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है।

प्रश्न 2.
किसकी कोख में अमूल्य निधियाँ भरी हैं?
उत्तरः
धरती माता की कोख में अमूल्य निधियाँ भरी हैं।

प्रश्न 3.
सच्चे अर्थों में पृथ्वी का पुत्र कौन है?
उत्तरः
निष्काम भाव से सेवा करनेवाला ही सच्चे अर्थों में पृथ्वी का पुत्र हैं।

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प्रश्न 4.
पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य क्या है?
उत्तरः
माता के प्रति अनुराग और सेवाभाव ही पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य है।

प्रश्न 5.
माता अपने सब पुत्रों को किस भाव से चाहती है?
उत्तरः
माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है।

प्रश्न 6.
राष्ट्र का तीसरा अंग कौन-सा है?
उत्तरः
राष्ट्र का तीसरा अंग संस्कृति है।

प्रश्न 7.
राष्ट्र की वृद्धि किसके द्वारा संभव है?
उत्तरः
राष्ट्र की वृद्धि संस्कृति के द्वारा संभव है।

प्रश्न 8.
राष्ट्र का सुखदायी रूप क्या है?
उत्तरः
समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है।

प्रश्न 9.
संस्कृति का अमित भंडार किसमें भरा हुआ है?
उत्तरः
संस्कृति का अमित भंडार स्वच्छन्द लोक गीतों और विकसित लोक कथाओं में भरा हुआ है।

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प्रश्न 10.
‘राष्ट्र का स्वरूप’ पाठ के लेखक कौन हैं?
उत्तरः
‘राष्ट्र का स्वरूप’ पाठ के लेखक श्री वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।

अतिरिक्त प्रश्नः

प्रश्न 11.
सच्चे अर्थ में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी कौन हैं?
उत्तरः
सच्चे अर्थ में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी पृथ्वी माता हैं।

प्रश्न 12.
जो जन मातृभूमि के साथ अपना संबंध जोड़ना चाहते हैं, उन्हें किनके प्रति ध्यान देना चाहिए?
उत्तरः
जो जन मातृभूमि के साथ अपना संबंध जोड़ना चाहते हैं, उन्हें राष्ट्र-निर्माण के प्रति ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 13.
किसके विकास और अभ्युदय के द्वारा राष्ट्र की वृद्धि संभव है?
उत्तरः
संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा राष्ट्र की वृद्धि संभव है।

प्रश्न 14.
पृथ्वी का सांगोपांग अध्ययन किसके लिए बहुत ही आनंदप्रद कर्तव्य माना जाता है?
उत्तरः
पृथ्वी का सांगोपांग अध्ययन जागरणशील राष्ट्र के लिए बहुत ही आनंदप्रद कर्तव्य माना जाता है।

प्रश्न 15.
किसका प्रवाह अनंत होता है?
उत्तरः
जन का प्रवाह अनंत होता है।

प्रश्न 16.
भूमि का निर्माण किसने किया है?
उत्तरः
भूमि का निर्माण देवों ने किया है।

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प्रश्न 17.
भूमि कब से है?
उत्तरः
भूमि अनंत काल से है।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिएः

प्रश्न 1.
राष्ट्र को निर्मित करनेवाले तत्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तरः
भूमि, भूमि पर बसनेवाले जन और जन की संस्कृति इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूपे बनता है। भूमि के प्रति हम जितने जागृत होंगे, उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती होगी। मातृभूमि पर निवास करनेवाले मनुष्य राष्ट्र का दूसरा अंग है। पृथ्वी माता है और जन उसके पुत्र हैं। राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि संभव है।

प्रश्न 2.
धरती ‘वसुंधरा’ क्यों कहलाती है?
उत्तरः
धरती माता की कोख में अमूल्य निधियाँ भरी हैं, जिनके कारण वह वसुंधरा कहलाती है। लाखो, करोड़ों वर्षो से अनेक प्रकार की धातुओं को पृथ्वी के गर्भ में पोषण मिला है। नदियों ने पहाड़ों को पीस-पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से पृथ्वी की देह को सजाया है। पृथ्वी की गोद में जन्म लेनेवाले जड़-पत्थर कुशल शिल्पियों से सँवारे जाने पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं। नाना प्रकार के अनगढ़ रत्न, विन्ध्य की नदियों के प्रवाह में चिलकते घाट से नई शोभा फूट पड़ती है।

प्रश्न 3.
राष्ट्र निर्माण में जन का क्या योगदान होता है?
उत्तरः
जन के हृदय में राष्ट्रीयता की कुंजी है। इसी भावना से राष्ट्र-निर्माण के अंकुर उत्पन्न होते हैं। जो जन पृथ्वी के साथ माता और पुत्र के सम्बन्ध को स्वीकार करता है, उसे ही पृथ्वी के वरदानों में भाग पाने का अधिकार है। माता के प्रति अनुराग और सेवाभाव पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य है। जो जन मातृभूमि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहता है, उसे अपने कर्तव्यों के प्रति पहले ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 4.
लेखक ने संस्कृति को जीवन-विटप का पुष्प क्यों कहा है?
उत्तरः
राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जायँ, तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौंदर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति के रूप में प्रकट होती है।

प्रश्न 5.
समन्वययुक्त जीवन के संबंध में वासुदेवशरण अग्रवाल के विचार प्रकट कीजिए।
उत्तरः
माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथ्वी पर बसनेवाले जन बराबर हैं। उनमें ऊँच और नीच का भाव नहीं है। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलनेवाले
और अनेक धर्मों को माननेवाले हैं, फिर भी ये मातृभूमि के पुत्र हैं और इस कारण इनका सौहार्द्र भाव अखंड है। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको समान अधिकार है। राष्ट्रीय जीवन की अनेक विधियाँ राष्ट्रीय संस्कृति में समन्वय प्राप्त करती हैं। समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है।

अतिरिक्त प्रश्नः

प्रश्न 6.
राष्ट्रीयता कैसे बलवती होती है?
उत्तरः
लेखक कहते हैं, भूमि के भौतिक रूप, उसके सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा कर्तव्य है। इस भूमि के पार्थिव स्वरूप अर्थात् पहाड़, नदियाँ, मनुष्य सबकुछ के प्रति हम जितने अधिक जागरूक होंगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता की भावना बलवती होगी।

प्रश्न 7.
‘माता पृथ्वी को प्रणाम’ – इसी दृढ़ भित्ती पर राष्ट्र का भवन कैसे निर्मित है?
उत्तरः
भूमि और जन मिलकर ही राष्ट्र की कल्पना को साकार करते हैं। जिस समय जन का हृदय भूमि के साथ माता और पुत्र के संबंध को पहचानता है उसी समय उसके भीतर ‘माता पृथ्वी को प्रणाम है’ का भाव प्रकट होता है। इसी प्रणाम भाव की दृढ़ भित्ति पर राष्ट्र का भवन तैयार होता है।

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प्रश्न 8.
‘पृथ्वी पर बसनेवाले जन बराबर हैं। इस विषय पर लेखक क्या कहते हैं?
उत्तरः
माता अपने सभी पुत्रों को समान भाव से चाहती है। पृथ्वी पर बसनेवाले सभी जन बराबर हैं। उनमें ऊँच-नीच का भाव नहीं है। इस पृथ्वी पर नगर और जनपद, पुर और गाँव, जंगल और पर्वत अनेक प्रकार के जनों से भरे हुए हैं। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ एवं धर्मों को मानने वाले हैं, फिर भी ये मातृभूमि के पुत्र है।

प्रश्न 9.
विभिन्न समुदाय, संस्कृतियों के समन्वय के बारे में लेखक क्या कहते हैं?
उत्तरः
विभिन्न समुदाय, संस्कृतियों के समन्वय के बारे में लेखक कहते हैं कि जिस प्रकार जंगल में अनेक लता, वृक्ष और वनस्पति बिना किसी भेदभाव, विरोध के वृद्धि करते हैं, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कृतियों के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं। जिस प्रकार नदियों के प्रवाह समुद्र में मिलकर एक हो जाते हैं, उसी तरह राष्ट्रीय जीवन की अनेक परंपराएँ राष्ट्रीय संस्कृति में समन्वय प्राप्त करती हैं। उपलब्धियों को हथं संस्कृति के क्षेत्र मध्यता का निर्माण किया है।

प्रश्न 10.
पूर्वजों के बारे में हमें कैसी भावना रखनी चाहिए?
उत्तरः
हमारे पूर्वजों ने ही युग-युगों से सभ्यता का निर्माण किया है। उन्होंने चरित्र और धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ भी पराक्रम किया है उस पराक्रम को, उनकी उपलब्धियों को हमें गौरव के साथ स्वीकार करना चाहिए। अतीत हमारे लिए बोझ नहीं बल्कि गर्व की बात है। इसलिए हमें हमारे पूर्वजों के प्रति गौरव का भाव रखना चाहिए।

प्रश्न 11.
विज्ञान और उद्यम दोनों से हम क्या खड़ा कर सकते हैं?
उत्तरः
विज्ञान और उद्यम दोनों को मिलाकर हम राष्ट्र के भौतिक स्वरूप का नया ठाट खड़ा कर सकते हैं। इस कार्य को प्रसन्नता, उत्साह और अथक परिश्रम के द्वारा नित्य आगे बढ़ाना चाहिए। देश की प्रगति के लिए सभी जनों का सामूहिक प्रयास जरूरी है।

III. ससंदर्भ स्पष्टीकरण कीजिए:

प्रश्न 1.
भूमि माता है, मैं उसका पुत्र हूँ।
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : जब तक लोगों के मन में भूमि के प्रति स्वाभाविक प्रेम, आदर सेवाभाव नहीं रहता – राष्ट्र की प्रगति नहीं हो सकती।
स्पष्टीकरण : मनुष्य अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है, लेकिन बाद में उसका उदर पोषण करनेवाली माता पृथ्वी माता है। पृथ्वी न हो तो अन्न नहीं, जीवन नहीं, संस्कृती नहीं। पृथ्वी और जन दोनों के सम्मिलन से ही राष्ट्र का स्वरूप संपादित होता है। इसलिये लेखक कहते है कि भूमि माता है, मैं उसका पुत्र हूँ।

प्रश्न 2.
यह प्रणाम भाव ही भूमि और जन का दृढ़ बंधन होता है।
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : लेखक के अनुसार कि जिस समय जन का हृदय भूमि के साथ माता और पुत्र के संबंध को पहचानता है, उसी समय (क्षण) आनंद और श्रद्धा से भरा हुआ इसका प्रणाम भाव मातृभूमि के लिए दृढ़ बंधन बन जाता है।
स्पष्टीकरण : लेखक कहते हैं कि – लोगों के हृदय में भूमि माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। इसी भावना के द्वारा मनुष्य पृथ्वी के साथ अपने सच्चे संबंध को प्राप्त करते हैं। जहाँ यह भाव नहीं है, वहाँ जन और भूमि का संबंध अचेतन और जड़ बना रहता है। जिस समय जन का हृदय भूमि के साथ माता और पुत्र के संबंध को पहचानता है, उसी क्षण आनंद और श्रद्धा से भरा हुआ उसका प्रणाम भाव मातृभूमि के लिए इस प्रकार होता है कि यह प्रणाम भाव ही भूमि और जन का दृढ़ बंधन होता है।

प्रश्न 3.
जन का प्रवाह अनंत होता है।
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : जन का प्रवाह अनंत होता है यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से अलग कर दिये जाए तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए।
स्पष्टीकरण : हजारों वर्षों से भूमि के साथ राष्ट्रीय जन ने तादात्मय स्थापित किया है। उसका प्रवाह अनंत है। जब तक सूरज की किरणें संसार को अमृत से भरता रहेगा तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर है। जन का संततवाही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है, जिसमें कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अनेक घाटों का निर्माण करना होता है।

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प्रश्न 4.
संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है।
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : संस्कृति ही सारे जन-मानस को जोड़ती है। इसलिए संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है।
स्पष्टीकरण : संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबंध मात्र है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि संभव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन की संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्न 5.
उन सबका मूल आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : लेखक उदाहरण के रूप में वन और समुद्र को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार नदियाँ जाकर समुद्र का स्वरूप बनाते है उसी प्रकार विभिन्न संस्कृतियाँ राष्ट्र का स्वरूप बनाते है।
स्पष्टीकरण : प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ संस्कृति का विकास करती है। प्रत्येक जन की अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार अलग-अलग संस्कृतियाँ राष्ट्र में विकसित होती हैं, परन्तु उन सबका मूल आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।

अतिरिक्त प्रश्नः

प्रश्न 6.
“इस प्रकार की उदार भावना ही विविध जनों से बने हुए राष्ट्र के लिए स्वास्थ्यकर है।”
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : लेखक भिन्न भिन्न विचार, रंग, संस्कृति एवं धर्मों के बीच की आन्तरिक एकता के बारे में बता रहे हैं।
स्पष्टीकरण : लेखक बता रहे हैं कि राष्ट्रीय जन साहित्य, कला, नृत्य, गीत जैसे अनेक रूपों में अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। बाह्य रूप में संस्कृति के ये लक्षण अनेक दिखाई पड़ते हैं परंतु आंतरिक आनंद के रूप में उनमें समानता है। जो व्यक्ति सहृदय है वह बिना भेदभाव के प्रत्येक संस्कृति के आनंद-पक्ष को स्वीकार करता है। इस प्रकार की उदार भावना ही विविध जनों से बने हुए राष्ट्र के लिए जरूरी है। विविधता में एकता इसी को कहते हैं।

प्रश्न 7.
“समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है।”
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : लेखक विविधता में एकता के जरूरी सूत्रों के बारे में बता रहे हैं।
स्पष्टीकरण : एक राष्ट्र के भीतर अलग-अलग संस्कृतियों की उपस्थिति होती है। सहिष्णुता एवं समन्वय के आधार पर वह एक राष्ट्र का रूप प्राप्त करती हैं। लेखक उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि जिस प्रकार अनेक नदियों का जल समुद्र में मिलकर एक बनता हैं उसी तरह राष्ट्रीय जीवन की अनेक पद्धतियां भी राष्ट्रीय संस्कृति में समन्वय प्राप्त करती हैं। लेखक बताते हैं – समन्वय युक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है।

प्रश्न 8.
“इसी दृढ़ चट्टान पर राष्ट्र का चिर जीवन आश्रित रहता है।”
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : लेखक कहते हैं कि – मातृभूमि के प्रति प्रणाम भाव ही राष्ट्रीय चेतना के विकास में सहायक होता है।
स्पष्टीकरण : जन का मातृभूमि के प्रति लगाव, उसके प्रति प्रणाम का भाव या मातृभूमि के साथ माँ और पुत्र के रिश्ते को स्वीकार करने का भाव ही एक राष्ट्र के रूप में विकसित होता है। लेखक कहते हैं – जिस समय भी जन का हृदय भूमि के साथ माता और पुत्र के संबंध को पहचानता है उसी क्षण उसके भीतर ‘माता पृथ्वी को प्रणाम है’ का भाव प्रकट होता है। भूमि और जन के इसी रिश्ते की दीवार पर राष्ट्र का भवन तैयार किया जाता है।

प्रश्न 9.
“हमारा यह ध्येय हो कि राष्ट्र में जितने हाथ हैं, उनमें से कोई भी इस कार्य में भाग लिए बिना रीता न रहे|
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : लेखक राष्ट्र की प्रगति के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता के बारे में बता रहे हैं।
स्पष्टीकरण : वासुदेवशरण अग्रवाल राष्ट्र के विकास के लिए जन की भागीदारी को रेखांकित करते हुए कह रहे हैं कि विज्ञान और परिश्रम को मिलाकर हमें राष्ट्र के विकसित स्वरूप को तैयार करना है। वे कहते हैं, यह कार्य प्रसन्नता, उत्साह और बिना थके परिश्रम करते हुए हो सकता है। इसके लिए जरूरी है कि राष्ट्र के भीतर जितने भी लोग हैं उनमें से कोई भी इस प्रयास में खाली न रहें।

प्रश्न 10.
“पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की आद्योपांत जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुंदरता, उपयोगिता और महिमा को पहिचानना आवश्यक धर्म है।”
उत्तरः
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
संदर्भ : लेखक कह रहे हैं कि भूमि से संबंधित चीजों के प्रति हमारी जागरूकता ही राष्ट्रीय भावना को पैदा करती है।
स्पष्टीकरण : राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए मातृभूमि के स्वरूप को समझना एवं उससे हृदय से जुड़ने पर ही जन के भीतर राष्ट्रीयता की भावना प्रकट होती है। राष्ट्रीयता की जड़ें पृथ्वी के साथ मजबूत जुड़ाव में निहित होती है। इसके लिए आवश्यक है कि हम इस पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की संपूर्ण जानकारी प्राप्त करें। साथ ही पृथ्वी की सुन्दरता, उपयोगिता और उसके महत्व को पहचानना हमारा आवश्यक धर्म होना चाहिए।

IV. निम्नलिखित वाक्य सूचनानुसार बदलिए:

प्रश्न 1.
हमारे ज्ञान के कपाट खुलते हैं। (भविष्यत्काल में बदलिए)
उत्तरः
हमारे ज्ञान के कपाट खुलेंगे।

प्रश्न 2.
माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती थी। (वर्तमानकाल में बदलिए)
उत्तरः
माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है।

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प्रश्न 3.
मनुष्य सभ्यता का निर्माण करेगा। (भूतकाल में बदलिए)
उत्तरः
मनुष्य ने सभ्यता का निर्माण किया था।

V. कोष्ठक में दिए गए कारक चिन्हों से रिक्त स्थान भरिएः

(पर, का, के, में)

प्रश्न 1.
जन ………… प्रवाह अनंत होता है।
उत्तरः
का

प्रश्न 2.
जीवन नदी ……….. प्रवाह की तरह है।
उत्तरः
के

प्रश्न 3.
पृथ्वी के गर्भ ……….. अमूल्य निधियाँ है।
उत्तरः
में

प्रश्न 4.
भूमि ……….. जन निवास करते हैं।
उत्तरः
पर

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प्रश्न 5.
उसने भिक्षुक …………. भीख दी।
उत्तरः
को

V. समानार्थक शब्द लिखिए:

प्रश्न 1.
अंबर, धरती, पेड़, नारी, सूर्य।
उत्तरः

  • अंबर – आकाश
  • धरती – पृथ्वी
  • पेड़ – वृक्ष
  • नारी – स्त्री
  • सूर्य – भानु

VI. विलोम शब्द लिखिएः

प्रश्न 1.
प्रसन्न, उत्साह, अमृत, स्वाभाविक, जन्म, ज्ञान।
उत्तरः

  • प्रसन्न – अप्रसन्न
  • उत्साह – निरुत्साह
  • अमृत – विष
  • स्वाभाविक – अस्वाभाविक
  • जन्म – मरण (मृत्यु)
  • ज्ञान – अज्ञान

राष्ट्र का स्वरूप लेखक परिचयः

श्री वासुदेवशरण अग्रवाल का जन्म 1904 ई. में लखनऊ के एक प्रतिष्टित वैश्य परिवार में हुआ था। आपने 1929 में एम.ए., 1941 में पीएच.डी. और 1946 में डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त कर ली। अग्रवाल जी ने पाली, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं का तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं पुरातत्व आदि विषयों का गहन अध्ययन किया था। आप भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के गंभीर अध्येता के रूप में विख्यात हैं। 1967 ई. में आपका निधन हो गया।

प्रमुख कृतियाँ : ‘कल्पवृक्ष’, ‘पृथ्वीपुत्र’, ‘भारत की एकता’, ‘माता भूमि’ आदि।
प्रस्तुत निबंध आपके ‘पृथ्वीपुत्र’ नामक निबंध संग्रह से लिया गया है। इस निबंध में लेखक ने यह बताया है कि “राष्ट्र का स्वरूप” तीन तत्वों से मिलकर बनता है – भूमि, जन और संस्कृति। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन का दृढ़ संबंध होना चाहिए। इसके साथ-साथ संस्कृति के विषय में लेखक ने मार्मिक विचार प्रकट किये हैं।
विद्यार्थियों को राष्ट्र के स्वरूप से भलीभाँति परिचित कराना एवं उनमें राष्ट्रीय भावना को जागृत करने के उद्देश्य से इस निबंध का चयन किया गया है।

राष्ट्र का स्वरूप Summary in Hindi

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल मशहूर इतिहासकार और प्राचीन भारत के विद्वान हैं। उन्होंने प्रस्तुत निबन्ध में राष्ट्र का स्वरूप, तत्व और लक्षणों के बारे में लिखा है। लेखक ने भारतीय संस्कृति की भी चर्चा की है। भूमि और उसके निवासी तथा उनकी संस्कृति का मिलन ही राष्ट्र है।

भूमि को हमारे ऋषि-मुनियों ने माता कहा है और पृथ्वी-संतान को पुत्र कहा गया है। भूमि अपनी संतान को जीवित रखने के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं को देती है। इसीलिए भूमि को वसुंधरा कहते हैं। भूमि पर नद-नदी, टीले-पहाड़, तालाब-पोखर, कुएँ-बावड़ियाँ, झरने- प्रपात, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी हैं। इनसे प्रकृति का संतुलन बना रहता है। मनुष्य को पानी, आहार मिलता है। भगवान ने प्राकृतिक संपदा देकर मानव जाति को जीने की कई सुविधाएँ उपलब्ध कराई है।

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राष्ट्र का दूसरा अंग है- जन या लोग, जो भूमि पर रहते हैं। वे भूमिपुत्र कहलाते हैं। भूमि पर रहनेवाले लोगों के लिए भूमि उनकी माता है। संतान की देखभाल करना माता का कर्तव्य है। माँ की सेवा करना और उसका हित चाहना पुत्र का कर्तव्य है। इस प्रकार भूमि और उसके जन का सम्बन्ध अटूट है।

भारत में भूमि को मातृभूमि, जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है। भूमि की चर-अचर, पशु-पक्षी तथा प्रकृति का संरक्षण करने पर ही यह भूमि हमारा ध्यान रखती है। अतः पर्यावरण की रक्षा करना हम सबका कर्तव्य है।

राष्ट्र का तीसरा अंग है- संस्कृति। यह बहुत ही मुख्य अंग है। जीवन में जो भी अच्छाई है, वही संस्कृति कहलाती है। साहित्य, कलाएँ, आचार-विचार आदि मिलकर ‘संस्कृति’ का रूप लेते हैं। जीवन में जिस प्रकार अंतरंग और बहिरंग दो रूप होते हैं, वैसे संस्कृति के भी दो रूप होते हैं- खान-पान, घर-बार, मंदिर-मसजिद – ये संस्कृति के बहिरंग रूप हैं। साहित्य और संगीत का आनंद, ललित कलाओं की मधुर अनुभूति इत्यादि संस्कृति के अंतरंग रूप हैं।

हमारे पूर्वजों ने साहित्य, कला, संगीत, शास्त्र आदि क्षेत्रों में प्रतिभा दिखाई थी। हमें उस परंपरा को निभाए रखना चाहिए। भविष्य के प्रति आशावादी होना चाहिए। भूतकाल से सबक सीखते हुए, वर्तमान को साथ लेकर, अपने उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर होना है। इस कार्य में संस्कृति सदा हमारे साथ है।

राष्ट्र का स्वरूप Summary in Kannada

राष्ट्र का स्वरूप Summary in Kannada 1
राष्ट्र का स्वरूप Summary in Kannada 2
राष्ट्र का स्वरूप Summary in Kannada 3
राष्ट्र का स्वरूप Summary in Kannada 4
राष्ट्र का स्वरूप Summary in Kannada 5

राष्ट्र का स्वरूप Summary in English

Dr. Vasudevsharan Agarwal is a noted historian and a scholar on ancient India. In this essay, he has written about the identity of the nation, its qualities and characteristics. He has also commented on Indian culture.

Land and its inhabitants and their culture make up a nation. The land has been termed as our mother by sages and saints while the offspring of the earth has been termed the son. Land gives all the necessities for its offspring to survive. Therefore, the land is also known as ‘Vasundhara’ (One who nourishes). On the land, we can find rivers and streams, hillocks and mountains, lakes, wells and ponds, rivulets, trees, forests, animals and birds. These maintain the balance of nature. Man is able to procure water and food from nature through these gifts of nature. By giving mankind a great and bountiful nature, God has given mankind many facilities in order for him to lead a good life.

Another element of a nation is its people, the people who live on the land. They have been referred to as the sons of the soil. For these people, the land that they live on is their mother. Looking after her offspring is the duty of a mother. Serving the mother and taking care of her interests is the duty of a son. Thus the relationship between the land and its people is unbreakable.

In India, the land is often referred to and known as mother-land. Only if we protect the animate and inanimate, the flora and fauna, and take care of nature, will naturally take care of us. Therefore, the protection and conservation of nature is everyone’s duty.
The third element of nation is culture. This is a very important element that constitutes a nation. Whatever good there is in life is known as culture. Literature, arts, thoughts and philosophy, all taken together, constitute culture. Just as we have the internal (or personal) and the external (or public) in life, so also in the culture there are two parts. The cuisine, the houses and the daily chores, the places of worship are all part of the external features of culture. The pleasure derived from literature or music, the pleasing effect of the fine arts are representative of the internal (or personal) features of culture.

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Our ancestors had shown great promise in the fields of literature, arts, music and science. We must keep up that tradition. We must also be hopeful with respect to the future. Learning from our mistakes of the past, and living in the present, we must move towards our future with ambition and hope. In this endeavour, our culture will always be with us.

कठिन शब्दार्थः

  • बलवती – बलिष्ठ;
  • आद्योपांत – आरंभ से अंत तक;
  • सांगोपांग – पूर्ण रूप से;
  • परिवर्द्धित – जिसमें वृद्धि हुई हो;
  • अभ्युदय – उन्नति, वृद्धि;
  • अनगढ़ – बेडौल;
  • तादात्म्य – एकत्व समर्पण;
  • सततवाही – निरंतर, सदा;
  • कबंध – सिर रहित धड़;
  • विटप – पेड, वृक्ष;
  • संवर्धन – उन्नति करना;
  • रीता – खाली;
  • भित्ति – दीवार;
  • भुवन – विश्व, संसार।
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